लेखक : के पी नायर, परामर्शदाता संपादक, दि टेलीग्राफ
दुओन ली, जो दक्षिण कोरिया के योनसेई विश्वविद्यालय में स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स में प्रोफेसर हैं,
जो लीक से हटकर सोचने के लिए जाने जाते हैं, ने भारत पर कुछ अस्वाभाविक अनुसंधान किया है। अपने कार्य के आधार पर हाल ही में वह इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि पिछले साल भारत की अर्थव्यवस्था अपने - अपने लोगों के जीवन स्तर की दृष्टि से 1976 में उनके अपने देश की
अर्थव्यवस्था से तुलनीय थी। इस कसौटी के अनुसार, दोनों देशों की जनसांख्यिकी संबंधी तस्वीरें भी, जो आर्थिक निष्पादन में एक प्रमुख कारक होती हैं, तुलनीय हैं।
इसके बाद प्रोफेसर दुओन ने 20 साल की एक अवधि के दौरान दोनों देशों में आय में वृद्धि का भी हिसाब लगाया। भारत के लिए, अपने अनुसंधान के इस भाग के लिए उन्होंने जिस अवधि को चुना वह 1993 से 2013 की अवधि है : इसका कारण यह है कि भारत में आर्थिक उदारीकरण की शुरूआत 1991
में हुई तथा इसके परिणामों को अनुभव की शुरूआत दो साल बाद अर्थात 1993 से हुई। दक्षिण कोरिया के मामले में, इस देश ने इतिहास के अपने वर्तमान स्वरूप की शुरूआत उस समय की जब 1953 में यह कोरियाई युद्ध के विध्वंश से उबरा। इसलिए उन्होंने इस तुलना के लिए 1956 को आधार
वर्ष के रूप में चुना। प्रोफेसर दुओन ने पाया कि इन अलग - अलग दो दशकों के दौरान भारत और दक्षिण कोरिया दोनों में आय में वृद्धि का पैटर्न समान है।
(चित्र में : 18 दिसंबर, 2014 को नई दिल्ली में 'भारत और कोरिया : द्विपक्षीय सहयोग के लिए नई संभावनाएं' पर
सेमिनार। फोटो : नई दिल्ली में कोरिया गणराज्य के दूतावास के फेसबुक पेज के सौजन्य से)चार्ट, सारणी, ग्राफ एवं पॉवर प्वाइंट प्रस्तुति के माध्यम से प्रोफेसर दुओन ने नई दिल्ली में ऐसे श्रोताओं के मध्य अपने उल्लेखनीय अनुसंधान का अनावरण किया
जिसमें भारत में दक्षिण कोरिया के राजदूत जून्गयू ली, भारी संख्या में भारत के सेवानिवृत्त राजदूत, जिनकी अपने देश की पूरब की ओर देखो नीति में सक्रिय रूचि है, कम से कम एक पूर्व राज्यपाल, शिक्षाविद, विश्लेषक तथा लेखक मौजूद थे जिनमें दक्षिण पूर्व एशिया एवं अनेक
अन्य देशों के लिए अनुराग है।
इनमें से एक सेवानिवृत्त राजदूत ने प्रोफेसर दुओन को बताया कि उनकी सांख्यिकी बहुत बढि़या है तथा समुची शाम का सबसे संगत प्रश्न पूछा : आर्थिक दृष्टि से दक्षिण कोरिया की बराबरी करने में भारत को कितना समय लगेगा! प्रोफेसर दुओन का जवाब यह था कि अपने वर्तमान नीतियों
के आधार पर तथा जिस तरह यह काम कर रहा है इसे देखते हुए भारत को उस स्तर पर पहुंचने में 30 साल लग जाएंगे जिस स्तर पर आज दक्षिण कोरिया है। उस स्तर पर पहुंचने की इस प्रक्रिया को गति देने के लिए उनके पास निश्चित रूप से अनेक सुझाव थे। अन्य बातों के साथ, इस तरह
का एक सुझाव यह था कि दक्षिण कोरिया की तरह भारत को तृतीयक शिक्षा में अधिक निवेश करना चाहिए, तथा इस ओर इशारा किया गया कि भारत उच्च शिक्षा में काफी निवेश कर रहा है तथा तृतीयक शिक्षा पर कम ध्यान दे रहा है, जबकि इसमें बड़े पैमाने पर परिवर्तन लाने की क्षमता है।
जैसा कि विदेश मंत्री श्रीमती सुषमा स्वराज सियोल की अपनी यात्रा पर जाने वाली हैं, प्रोफेसर
दुओन का अनुसंधान इस ओर इशारा करता है कि भारत दक्षिण कोरिया के अनुभव से कितना कुछ सीख सकता है जो पंगु कर देने वाले युद्ध की राख से बाहर निकलकर आज विश्व में क्रय शक्ति की दृष्टि से 12वीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन गया है और एशिया के मात्र दो देशों में से एक
बन गया है (इजरायल को भौगोलिक दृष्टि से मध्य पूर्व के देश के रूप में श्रेणीबद्ध किया जा रहा है) जिनको आर्थिक सहयोग एवं विकास संगठन (ओ ई सी डी) के सदस्य के रूप में शामिल किया गया है।
भारत की दो दशक पुरानी ''पूरब की ओर देखो'' नीति दक्षिण पूर्व एशियाई राष्ट्र संघ (आसियान) के सदस्य देशों एवं जापान पर बहुत अधिक केंद्रित है। जैसा कि नरेंद्र मोदी सरकार ने इस नीति को ''पूरब में काम करो'' प्रयास में परिवर्तित किया है तथा दक्षिण कोरिया के साथ
काम करने पर अधिक बल देना शिक्षाप्रद हो सकता है। उम्मीद की जा सकती है कि विदेश मंत्री की सियोल यात्रा इस तरह की प्रक्रिया की शुरूआत हो सकती है।
(चित्र में : प्रधानमंत्री जी ने 12 नवंबर, 2014 को नाय पी ताव, म्यांमार में 12वीं आसियान - भारत शिखर बैठक
के दौरान अतिरिक्त समय में कोरिया गणराज्य की राष्ट्रपति पार्क गुएनहे से मुलाकात की। फोटो : एम अशोकन, फोटो प्रभाग के सौजन्य से।)
सार्वजनिक रूप से जितना स्वीकार किया जाता है या माना जाता है उससे कहीं अधिक समानता भारत और दक्षिण कोरिया के बीच है : केवल उन्हीं क्षेत्रों में ही नहीं जिन पर प्रोफेसर दुओन ने अपने अनुसंधान के लिए ध्यान केंद्रित किया है। उदाहरण के लिए, एशिया में ऐसा कोई दूसरा
देश नहीं है जिसके साथ भारत अस्तित्व के अपने वर्तमान चरण में एक साझा इतिहास साझा करता है। जब देश आजाद हुआ था तब मन की एक अत्यंत कष्टदायी प्रक्रिया में भारत का विभाजन हुआ जिसके परिणाम आज भी भुगतने पड़ रहे हैं। कुछ ऐसा ही कोरिया के साथ भी लगभग उसी समय हुआ था।
कोरिया प्रायद्वीप में दो राज्य आज भी हैं जबकि दक्षिण एशिया के विभाजन से दो राज्य निकले थे वे आगे चलकर तीन बन गए परंतु तात्विक दृष्टि से उनके इतिहास एवं अनुभव एक जैसे हैं। एक तरह से यह तर्क दिया जा सकता है कि वियतनाम का इतिहास समान था परंतु अब यह वियतनाम
के फिर से एकीकरण के साथ अटल रूप से परिवर्तित हो गया है।
जहां तक दक्षिण कोरिया का संबंध है, एक साझी सांस्कृतिक एवं धार्मिक पृष्ठभूमि है जिसे भारत इसके लोगों के साथ साझा करता है। ऐसे प्रभाव हैं जिनका सियोल और नई दिल्ली को करीब लाने के प्रयासों से गहरा सरोकार हो सकता है। एक लोकप्रिय किंवदंती के अनुसार, हुह नाम की
अयोध्या की एक भारतीय राजकुमारी ईसवी सन 48 में कोरिया प्रायद्वीप की समुद्री यात्रा पर गई थी। वहां उनकी मुलाकात गया वंश के नरेश सुरो से हुई जिससे उन्होंने शादी रचा ली।
कोरिया का बौद्ध धर्म आज भारत की सॉफ्ट पॉवर का प्रयोग करने के लिए उर्वर अवसर प्रदान कर रहा है, विशेष रूप से इसलिए कि भारत में धार्मिक पर्यटन को बढ़ावा दने और बिहार एवं नेपाल के तराई क्षेत्र में बौद्ध धर्म की जड़ों को समझने के लिए दक्षिण कोरिया के प्रयासों में
उत्थान देखने को मिल रहा है। यह सब ऐसे समय में हो रहा है जब नई दिल्ली में भारतीय विरासत को पनपने देने एवं बनाए रखने के लिए न कि इसके बारे में क्षमायाचक होने या समृद्ध अतीत के प्रति उदासीन बने रहने की नई पहलें शुरू हुई हैं। आधुनिक काल में अन्य समानताओं के
तहत लोकतंत्र एवं मुक्त उद्यम शामिल हैं।
1990 के दशक के पूर्वार्ध में इस लेखक की मुलाकात कोरिया के ऐसे अनेक लोगों से हुई थी जो राजनयिक एंक्लेव की राजधानी चाणक्यपुरी में दक्षिण कोरिया के राजदूत के निवास पर एक राष्ट्रीय दिवस समारोह में धारा प्रवाह हिंदी बोल रहे थे। एक बात बिल्कुल स्पष्ट थी कि कोरिया
के ये लोग दिल्ली में बहुत सहज महसूस करते हैं : राजदूत के निवास पर मौजूद कुछ भारतीय मेहमानों की तुलना में वे भारत को बेहतर जानते हैं। यह सब उस समय से काफी पहले की बात है जब दक्षिण कोरिया की कंपनियों ने भारत के आर्थिक उदारीकरण का फायदा उठाया तथा सिंगापुर के
साथ भारी संख्या में इस देश में कदम रखने वाले पहले देशों में शामिल हुई।
कोरिया के इन लोगों के साथ वार्तालाप से भारत - दक्षिण कोरिया संबंधों में एक नए अध्याय का पता चला जिसे अभी तक वह एक्सपोजर नहीं मिला है जिसका यह हकदार है। हालांकि जो ज्ञात है वह यह है कि जब 1953 में 38वें पैरलल के साथ कोरियाई युद्ध में गतिरोध उत्पन्न हो गया
था तथा युद्ध विराम के लिए वार्ता युद्ध के बंदियों के भाग्य पर शुरू हुई थी, तब भारत के प्रस्तावों को प्रभुता प्राप्त हुई। पांच देशों वाले देश-प्रत्यावर्तन आयोग में भी भारत का निर्णायक हाथ था क्योंकि पश्चिम के दो देशों - कनाडा एवं स्वीडन ने अधिकांशत: एक
तरफ मतदान किया तथा पूर्वी यूरोप के दो देशों - पोलैंड एवं चेकोस्लोवाकिया ने उनके विरोध में मतदान किया। इस प्रकार भारत का वोट स्वाभाविक रूप से निर्णायक था क्योंकि पांच सदस्यों वाले आयोग में तीसरे वोट से बहुमत मिला।
राष्ट्रीय दिवस समारोह में कोरिया के इन लोगों ने कहा कि जब उन्होंने युद्ध विराम के लिए वार्ता के दौरान कोरिया छोड़ने एवं भारत में रहने का विकल्प चुना था उसके बाद उनके कल्याण में पंडित जवाहरलाल नेहरु ने निजी तौर पर रूचि ली थी, जिसकी वजह से उन्होंने यहां
अपना व्यवसाय स्थापित किया, अपने बच्चों का लालन - पालन किया और अपने घर बनाए। तथापि, उनके बच्चे बड़ा होकर या तो पश्चिम की ओर पलायन कर गए या फिर कोरिया वापस चले गए, जो युद्ध के बाद बंजर भूमि में तब्दील हो चुके कोरिया की तुलना में उस समय तक आर्थिक महाशक्ति
बन चुका था। छोटा सा शरणार्थी समुदाय अब करीब - करीब विलुप्त हो गया है।
जब उनके भविष्य के बारे में युद्ध के बंदियों की स्क्रीनिंग पर शीत युद्ध के प्रतिद्वंद्वियों एवं संयुक्त राष्ट्र के बीच व्यवस्थाओं को अंतिम रूप दे दिया गया जब नेहरु जी इस प्रयोजन के लिए 6,000 कर्मियों से लैस ''भारतीय अभिरक्षक बल'' भेजने के लिए सहमत हुए
तथा इस बल के मुखिया के रूप में देश के मशहूर योद्धाओं में से एक यानी जनरल के एस तिमैय्या को नियुक्त किया। जब कोरिया प्रायद्वीप में युद्ध औपचारिक रूप से समाप्त हो जाएगा तथा कोरिया प्रायद्वीप का भविष्य हमेशा के लिए तय हो जाएगा, तब इतिहास यह आकलन करेगा कि क्या
भारत की गुट निरपेक्षता की जड़ें भारतीय अभिरक्षक बल के मुखिया के रूप में जनरल के एस तिमैय्या की भूमिका में मौजूद हो सकती हैं।
एक बात निश्चित है। कोरिया नेहरु जी की तटस्थता की नीति के परीक्षण की प्रयोगशाला बना जो गुट निरपेक्ष आंदोलन से पहले शुरू हुई थी। इसके अलावा, कोरियाई युद्ध में भारत की भूमिका से वैश्विक मंच इसकी एक आवाज सुनाई दी जो उस समय इस देश की सैन्य या आर्थिक क्षमता की
तुलना में काफी ऊंची थी। कोरिया में ही पहली बार अंतर्राष्ट्रीय संघर्ष की परिस्थितियों में एक ईमानदार बिचौलिए के रूप में भारत को विश्वसनीयता प्राप्त हुई।
भारतीय कूटनीति के इस खंड का कोई भी उल्लेख तब तक पूरा नहीं हो सकता है जब तक कि कर्नल एम के उन्नी नायर का उल्लेख न किया जाए, जो एक होनहार युवा पत्रकार थे जिन्होंने कोरिया युद्ध में अपनी जान गवां दी थी। वाशिंगटन स्थित भारतीय दूतावास में जन संपर्क अधिकारी बनने
के लिए नायर ने सक्रिय पत्रकारिता छोड़ दी। वहां, उन्होंने कोरिया में स्वेच्छा से सेवा करने के लिए अपनी इच्छा व्यक्त की और भारत सरकार ने कोरिया पर यू एन आयोग के एक वैकल्पिक प्रतिनिधि के रूप में काम करने के लिए उनका चयन किया। नायर की मृत्यु पर दिनांक 13
अगस्त, 1950 की असाधारण राजपत्र की एक अधिसूचना में आभार प्रकट करते हुए कहा गया कि ''वहां से उनका प्रेषण कोरिया की परिस्थिति की समझ प्राप्त करने में सरकार के लिए अमूल्य साबित हुआ।'' बारूदी सुरंग के विस्फोट में मरने वाले नायर तथा अन्य लोगों को समर्पित एक स्मारक
दक्षिण कोरिया के वाएगवन में मौजूद है।
(चित्र में : कोरियाई युद्ध स्मारक - वाएगवन)
अब तेजी से भविष्य पर नजर डालते हैं। हाल के वर्षों में एशिया इतना अधिक परिवर्तित हो गया है कि अतीत की निश्चितता जो दशकों तक कोरिया में एवं अन्यत्र नई दिल्ली को अच्छी स्थिति में रखी थी, वह अब काम की नहीं रह गई है। नीति को परिवर्तित करना जो इन परिवर्तनों को
ध्यान में रखे और नए संदर्भ में बड़ा एवं निडर सोचना विदेश मंत्री श्रीमती सुषमा स्वराज के लिए उस समय चुनौती होगी जब वह सियोल में अपने समकक्ष के साथ वार्ता करेंगी। दोनों पक्षों के लिए यह उत्साहवर्धक है कि वे द्विपक्षीय संबंध को आगे ले जाने में सक्षम है और
इसके लिए न तो भारत को अपनी गुट निरपेक्षता छोड़ने की जरूरत होगी और न ही दक्षिण कोरिया को संयुक्त राज्य अमेरिका के साथ अपने गठबंधन को कम करने की जरूरत होगी।