(अप्रवासी घाट, मॉरीशस में माल्यार्पण करते हुए विदेश मंत्री)अनजान
राहों पर यात्रा
भारत से करारबद्ध श्रमिकों का वर्ष 1834 में दासता के उन्मूलन के बाद मॉरीशस तथा अन्य गंतव्य देशों जैसे सूरीनाम, गुयाना, पुन:समेकित द्वीपसमूह (रियूनियन आइलैंड), फिजी की ओर प्रस्थान करना इतिहास के अनकहे आख्यानों में से एक है। करारबद्ध मार्ग, जो भारतीय प्रवासी
समूह को इन देशों में लाया और दासता मार्ग (स्लेव रूट) में काफी समानताएं हैं लेकिन यह कम चर्चित है। यह वह यात्रा है जिसके विषय में स्पष्ट एवं क्रमवार जानकारी कम उपलब्ध है और कभी – कभी इसे भूला भी दिया जाता है। बहुत मामलों में, भारतीय प्रवासी समूह और उनकी
यात्रा ने आधुनिक प्रजातांत्रिक राष्ट्र राज्यों की नींव रखी। राजनीतिक सशक्तीकरण की उनकी चाहत इन क्षेत्रों में प्रजातंत्र, बहुसमूहवाद और बहुजातिवाद के उद्भव के सर्वाधिक रोचक उदाहरणों में हैं। इस तरह, इनकी यात्रा में इस अवधि के दौरान के इन देशों के इतिहास
की मार्मिक झलक मिलती है।
संस्कृति की वाहक तथा पहचान की संरक्षक के रूप में भारतीय प्रवासी समूह की महिलाओं की यात्रा भारतीय समाज के पैतृक स्वरूप और यात्रा के दौरान की परिस्थितियों की वजह से आसान नहीं थी। नि:शब्द अधिकांश आबादी अर्थात महिलाओं की अभिव्यक्ति उन ऐतिहासिक दस्तावेजों में
विरले ही मिलती है, जिनमें शिक्षित समूहों और प्रभावी व्यक्तियों के विचारों का रिकार्ड है। 19वीं शताब्दी के महान प्रवासी समूह में भारतीय महिलाओं द्वारा अदा की गई भूमिका, जिससे ब्रिटिश, फ्रेंच साम्राज्यों के कई पूर्ववर्ती कॉलोनियों का असुधार्य रूप से कायाकल्प
हुआ है, को विशेषकर कम महत्व प्रदान किया गया है। भारतीय करारबद्ध महिलाओं को आश्रितों एवं पत्नियों, प्रवास करने के लिए अनिच्छुक, नगण्य श्रम महत्व वाली अथवा अस्पष्ट विशेषताओं वाली अकेली महिलाओं के रूप में दर्शाने की प्रवृत्ति दृष्टिगोचर होती है। ऐसे चरित्र-चित्रण
तत्कालीन लोगों की कृतियों में मिलते थे- यूरोपीय कार्मिक जिन्होंने ऐसे अनेक दस्तावेजों की रचना की जिनका हम आज उपयोग करते हैं लेकिन बाद के अनेक इतिहासकारों ने इनकी ही पुनरावृत्ति की है।
ऐतिहासिक स्रोत : विगत में यात्रा तथा भारत माता के साथ संबंधों को अक्षुण्ण बनाए रखना :
प्रारंभत: महिलाओं की कमी, एक गंभीर सामाजिक मुद्दा होने के अलावा, होने की वजह से सामाजिक अड़चनों एवं कभी-कभी धार्मिक परिसीमाओं से परे विवाह करने की आवश्यकता पड़ी। तथापि, करारबद्ध तथा विशेषकर महिला समूह ने कभी भी अपने अतीत, अपनी संस्कृति, अपनी भाषा अथवा अपने
धर्म से संबंध विच्छेद नहीं किया। उन्होंने भारत माता के साथ इन संबंधों को अक्षुण्ण बनाए रखा और परंपरागत उत्सवों चाहे वह हिन्दुओं की होली हो अथवा मुस्लिमों का मुर्हरम, का समारोह भी मनाना जारी रखा। यह प्राय: परिवार की महिलाएं ही थीं जिन्होंने परिवार में
भोजपुरी बोले जाने को बनाए रखने में अपनी महती भूमिका निभाई। हमें इन करारबद्ध महिलाओं के योगदान को सम्मान प्रदान करना चाहिए जिन्होंने मौखिक परंपराओं एवं भाषा से जुड़ाव बनाए रखा और इस संस्कृति की वाहक के रूप में एक आवश्यक भूमिका निभाई।
(त्रिनिदाद के कैरीबियन द्वीप समूह में भारतीय श्रमिकों का पहुंचा नया जत्था)करारबद्ध
भारतीय महिलाओं की यात्रा : संस्कृति की वाहक तथा पहचान की संरक्षक
भारतीय कराबद्ध महिलाओं के पत्रों, याचिकाओं एवं वक्तव्यों के माध्यम से अतीत के साथ अपने सांस्कृतिक संबंध को बनाए रखने और अपनी पहचान को विकसित करने में उनकी भूमिका हेतु एक अकाट्य विश्लेषण किया जा सकता है। विद्वानों का यह मानना है कि भारतीय करारबद्ध समूह
पर दासता का एक नया स्वरूप अधिरोपित करने के उपनिवेशकर्ताओं के प्रयासों के बावजूद, इन महिलाओं द्वारा अदा की गई भूमिका उनकी पूर्ववर्ती दासों से अपेक्षित भूमिका से काफी भिन्न थी। इसका कारण संभवत: यह था कि महिलाओं को पूंजीगत उत्पादों में और विशेषकर बागान कृषि
अर्थव्यवस्था में असमान रूप से लगाया गया था, जो दासता उन्मूलन पूर्व की अवधि में बागान कृषि में महिला दासों को लगाए जाने की प्रथा से भिन्न व्यवस्था थी।
(करारबद्ध महिला : फोटो - द आलमा जॉर्डन लाइब्रेरी, द यूनिवर्सिटी ऑफ द वेस्टइंडीज के सौजन्य से)परिणामस्वरूप,
करारबद्ध समाज में महिलाओं की जो स्थिति थी उसका सहानुभूतिपूर्वक रिकार्ड नहीं रखा गया है। उनका वर्णन या तो भारतीय महिलाओं के उन ''दयनीय बहनों'', जिन्हें छलपूर्वक विदेश ले जाया गया है, के रूप में अथवा उपेक्षित सामाजिक वर्गों या जातियों के रूप में अथवा स्वयं
के लिए पति चयन करने वाली ‘’चरित्रहीन महिलाओं’’ के रूप में किया गया है। तत्कालीन समाज में उनकी वास्तविक स्थिति के बारे में उपलब्ध साहित्य में दी गई कोई जानकारी में समानता नहीं मिलती है। कोई भी पाठ सही नहीं है तथा बाद के इतिहासकारों, विशेषकर महिला इतिहासकारों
ने इसे सिरे से खारिज कर दिया है। महिला इतिहासकारों ने महिलाओं को अनैतिकता के आरोपों से निर्दोष ठहराया है, जैसाकि उस अवधि के दौरान परंपरागत इतिहास में दर्शाया गया था। उस समय की महिलाओं को इंसान न मानकर ‘वस्तु’ के रूप में माना जाता था। वे अपने नए घरों में स्थायी
संगी और खुशी पारिवारिक जीवन की प्राप्ति के लिए सतत प्रयासरत रहती थीं। इसके बावजूद, पूर्व के वर्षों में पुरूष तथा करारबद्ध महिलाओं के बीच का अनुपात स्थायी पारिवारिक जीवन बनाने में काफी मददगार साबित हुआ था। कहीं बाद में जाकर उपनिवेशी सरकार ने परिवार प्रवसन
तथा महिला करारबद्ध श्रम को बढ़ावा देने का निर्णय लिया। यह दृष्टिकोण संबंधित कॉलोनी के अनुसार भिन्न था। करारबद्ध भारतीय महिलाओं की बढ़ती संख्या ने करारबद्ध आबादी की सांस्कृतिक सृजनशीलता और परिवार के कुछ मानकों के पुनर्गठन को एक नई दिशा प्रदान की।
उपर्युक्त तथ्य कैरीबियन, मॉरीशस तथा फीजी में प्रवास करने वाले करारबद्ध महिलाओं के बारे में सही है। कैरीबियन तथा मॉरीशस में, संरक्षित अभिलेखों तथा मौखिक रिकॉर्डों और इन महिलाओं के पत्रों में इनके द्वारा अपने धर्म और अपनी संस्कृति, विशेषकर भोजपुरी संस्कृति,
को संरक्षित रखने के उनके प्रयासों के मर्मस्पर्षी प्रमाण मिलते हैं। कुछ लेखकों ने जिक्र किया है कि कैरीबियन तथा मॉरीशस में, विनम्र करारबद्ध महिलाएं दो साड़ी, एक लोटा और तुलसीदास के ‘रामायण’ की एक प्रति के साथ आयीं। इसका प्राय: उल्लेख मिलता है कि ''एक समुदाय
की इस आध्यात्मिक आवश्यकता में कैरीबियन में भारतीय संस्कृति का उद्भव हुआ और यह फलती-फूलती रही''। हम यह कह सकते हैं कि इसका बहुत बड़ा श्रेय इन करारबद्ध महिलाओं को जाता है।
(भारतीय अप्रवास अभिलेख (मॉरीशस का राष्ट्रीय अभिलेख) में करारबद्ध श्रमिकों के आप्रवास से
संबंधित रिकॉर्ड है, फोटो सौजन्य : महात्मा गांधी संस्थान)आखिरकार, इन करारबद्ध महिलाओं के अनवरत संघर्ष ने परिवर्तन की शुरूआत करने, अन्याय के विरूद्ध आवाज उठाने, अपनी संस्कृति को संरक्षित रखने और अपनी पहचान को विकसित करने में उनकी सराहनीय क्षमता
को परिलक्षित किया। यह दमनात्मक राज्य विधायनों, बागान कृषि आचार संहिता तथा सांप्रदायिक प्रतिबंध अथवा परिवार नियंत्रण, जो उनकी गतिशीलता को सीमित करने के लिए बनाए गए थे, के बावजूद संभव हो सका। इस तरह, इन महिलाओं की भूमिका जटिल और विविध स्वरूप की थी। इन्होंने
स्वयं से संबद्ध समुदाओं की स्थापना एवं विकास में और राष्ट्रीय राज्यों के निर्माण, जो बाद में कैरीबियन अथवा मॉरीशस अथवा फिजी में बने, में अपना पूर्ण योगदान दिया।
भारतीय महिलाओं द्वारा विदेश में अपने संबंधियों को अथवा करारबद्ध महिलाओं द्वारा भारत में अपने परिवार को लिखे गए पत्र वे स्रोत सामग्री हैं जिनसे ये निष्कर्ष निकाले गए हैं। इनसे पहली पीढ़ी के इन महिला अधिवासियों के जीवन की असाधारण एवं तथ्यात्मक झलक मिलती है।
उन दिनों के अप्रवासी कार्यालयों तथा वर्तमान के राष्ट्रीय अभिलेखों, चाहे मॉरीशस में हो या कैरीबियन द्वीपसमूह में हो या फिजी में हो, में विद्यमान इन महिलाओं की याचिकाओं तथा वक्तव्यों से अनुपूरक जानकारी प्राप्त की जा सकती है।
निष्कर्षणात्मक विचार
यह एक जटिल विषय है। दुर्भाग्य की बात यह है कि अन्वेषण के इस क्षेत्र में ऐसे विद्वानों की निरंतर कमी रही है जो भौगोलिक, अवधारणात्मक और राष्ट्रवादी संकीर्णताओं से ऊपर उठकर शोध करें, ऐसा न होने की वजह से यह दोषपूर्ण शोध कार्य सामान्य रूप से तत्कालीन बागान-कृषि
व्यवस्था संबंधी अध्ययनों और विशेषकर करारबद्ध श्रम संबंधी अध्ययनों का प्रतीक चिह्न बनकर रह गया है।
उपनिवेश युग के बाद मॉरीशस जैसे जीवंत प्रजातांत्रिक देशों के सामाजिक-आर्थिक, सांस्कृतिक तथा राजनीतिक जीवन की परिसीमाओं का स्वरूप निर्धारित करने और ऐसी व्यवस्था में योगदान करने में इसकी महती भूमिका के बावजूद, करारबद्ध श्रम मार्ग में अंतराष्ट्रीय स्तर पर
अभिरूचि का न होना भी उतना ही दुर्भाग्यपूर्ण है। इन प्रणालियों से सम्बद्ध नई संभावनाओं में वृद्धि करने के प्रयोजनार्थ करारबद्ध श्रम के बारे में कार्यरत विद्वानों के अंतरराष्ट्रीय नेटवर्क का गठन करने और करारबद्ध व्यवस्था से संबंधित अनुभव की संपूर्ण विविधता
के संदर्भ में अपनी समझ को प्रगाढ़ बनाने पर विशेष जोर दिए जाने की आवश्यकता है।
मैं अपने मित्र और छोटे भाई, राबिन एस. बलदेवसिंह, की एक भावात्मक कविता के साथ अपनी बात समाप्त करना चाहूंगा, जो नीदरलैंड में सूरीनामी हिंदुस्तानी समुदाय के नेता और हेग के डिप्टीमेयर हैं और जिनके साथ नीदरलैंड के राजदूत रहने के दौरान मेरी घनिष्ठता हो गई थी।
रॉबिन अक्सर सूरीनाम में जहाजी भैया एवं बहनों को लाने वाले पहले जहाज ''लल्ला रूख'' से सम्बद्ध लोक साहित्य, दंत कथाओं, संगीत एवं नृत्य की चर्चा करते रहते थे। उनके काव्य संग्रह ''तमन्ना : अंतहीन चाह'' (तमन्ना, एंडलेस लॉगिंग), जिसका मैंने जून,2013 में
हेग अवस्थित गांधी सेंटर में लोकार्पण किया था, में ''लल्ला रूख'' पर लिखी उनकी एक कविता है जो नरक की ओर यात्रा करने वाली मानव आत्मा की विजय का प्रतीक है। इसमें वर्णन है कि –
''मैं इस कारावास की संकीर्णता में कैद अकेला व्यक्ति नहीं हूं,
जहां मनुष्य, मनुष्यों के साथ खिलवाड़ करते हैं,
मनुष्यों की सोच तथा आचरण पशुओं से भी बदतर है।
कोई उममीद शेष नहीं है। जहां क्रंदन है, व्यथा है।
यह मुक्ति की राह नहीं है।
यह एकाकी राह केवल नरक की है''
(राजदूत भास्वती मुखर्जी)(लेखिका, एक पूर्व राजनयिक, यूनेस्को में भारत के
स्थायी प्रतिनिधि थी (2004-2010)। यह लेख विशेष रूप से विदेश मंत्रालय की वेबसाइट
www.mea.gov.in के ''इनफोकस'' खण्ड के लिए लिखा गया है)।